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एक मुड़ा कागज लहराकर राजीव गांधी की कुर्सी छीनी:लालू के जरिए आडवाणी की रथयात्रा रुकवाई; PM वीपी सिंह के किस्से

मैं भारत का पीएम

16 मई 1987 की दोपहर। दिल्ली के बोट क्लब ग्राउंड में कांग्रेस की एक बड़ी रैली थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसमें भाषण देने वाले थे। रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा दे चुके और राजीव पर हमलावर वीपी सिंह ने तय किया कि उन्हें भी इस रैली में शामिल होना चाहिए।

चिलचिलाती धूप में सिर पर गमछा लपेटे पसीने से तरबतर वीपी सिंह सबसे आगे की पंक्ति में जा बैठे। कुछ दिन पहले ही वीपी की मां का निधन हुआ था और उन्होंने सिर मुंडवाया था।

राजीव ने भाषण देना शुरू किया- ‘आज हमें याद रखना है कि कैसे हमारे बीच से मीर जाफर उठे थे, जयचंद उठे थे, भारत को बेचने के लिए, भारत को कमजोर करने के लिए। उनको हम करारा जवाब देंगे।’

वरिष्ठ पत्रकार देबाशीष मुखर्जी अपनी किताब ‘द डिसरप्टर: हाउ वीपी सिंह शूक इंडिया’ में लिखते हैं कि जयचंद कथित रूप से वीपी सिंह के पूर्वज थे। राजीव का इशारा साफ था। वीपी अपमानित हुए। वो तत्काल रैली छोड़कर चले गए। इस घटना के बाद ही वीपी सिंह ने मन बना लिया कि वो राजीव को PM पद से हटाकर ही दम लेंगे।

‘मैं भारत का पीएम’ सीरीज के 7वें एपिसोड में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने की कहानी और उनसे जुड़े किस्से…

2 दिसंबर 1989 को राष्ट्रपति भवन में शपथ ग्रहण समारोह के दौरान खिलखिलाते वीपी सिंह राजीव गांधी से मिलते हुए।

राजीव ‘बोफोर्स कांड’ में घिरे, वीपी सिंह को मिला चुनावी मुद्दा
18 मार्च 1986 को भारत सरकार और स्वीडन में हथियार बनाने वाली कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 1,437 करोड़ रुपए की डील हुई। इसके जरिए इंडियन आर्मी को 155 एमएम की 400 होवित्जर तोप सप्लाई की जानी थीं। इसके एक साल बाद 16 अप्रैल 1987 को एक स्वीडिश रेडियो चैनल ने आरोप लगाया कि, ‘इस डील के लिए भारत के नेताओं और सैन्य अधिकारियों को कंपनी ने रिश्वत दी थी।’

इसके पहले तत्कालीन रक्षामंत्री वीपी सिंह ने राजीव की सहमति के बिना एक दूसरे रक्षा सौदे में जांच शुरू करवा दी थी। देबाशीष मुखर्जी लिखते हैं, ‘वीपी को जानकारी मिली थी कि HDW सबमरीन सौदे में गड़बड़ी हुई है। वीपी ने तत्कालीन रक्षा सचिव को बुलाकर इस डील की जांच करने को कहा। जब ये बात बाहर आई तो राजीव नाराज हुए। कांग्रेस के अंदर ही वीपी के खिलाफ बातें होने लगीं और पार्टी के सांसद खुलकर उनका विरोध करने लगे।’

इसके चलते वीपी ने 12 अप्रैल 1987 को रक्षामंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। चार दिन बाद बोफोर्स कांड का भी मुद्दा गरम हो गया और वीपी मुखर होकर राजीव गांधी पर निशाना साधने लगे। इसके चलते उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया और वीपी ने जन मोर्चा नाम से अपनी पार्टी बना ली। 1988 में जन मोर्चा का विलय जनता दल में हो गया।

वीपी ने बोफोर्स कांड के दम पर 1989 का चुनाव लड़ा और हर नागरिक को इस भ्रष्टाचार के बारे में बताने के लिए पूरा कैंपेन चलाया। वीपी ने नारा दिया, ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’

कागज निकाल वीपी बोले: राजीव के स्विस बैंक का अकाउंट नंबर मेरे पास
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं कि वीपी सिंह अपने चुनाव प्रचार के दौरान एक कागज जेब में लेकर चलते थे। वो भाषण देते हुए कहते कि मेरे पास स्विस बैंक का वो अकाउंट नंबर है, जिसमें बोफोर्स घोटाले के पैसे जमा हैं।

3 नवंबर 1988 को पटना में एक चुनावी रैली में वीपी सिंह ने राजीव गांधी के स्विस बैंक के खुफिया खाते का राज खोलने का दावा किया। इसके अगले दिन वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने जनसत्ता में लिखा, ‘स्विस बैंक कॉर्पोरेशन के इस खाते का नंबर 99921 पीयू है। इस खाते में बोफोर्स सौदे के कमीशन में मिले 3,20,76,709 स्वीडिश क्रोमर (तब 8 करोड़ रुपए) जमा हैं। ये खाता लोटस के नाम पर है। वीपी ने चुनौती दी कि लोटस और राजीव का अर्थ एक ही होता है। अगर यह बात गलत निकली तो वो संन्यास लेने को तैयार हैं।’

हालांकि, 17 दिसंबर 1988 को इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में लेखक भवानी सेन गुप्ता ‘फ्रॉम बोफोर्स टु बोफोरटीस’ नामक आर्टिकल में लिखते हैं, ’10 नवंबर 1988 को वीपी संसद में नई संसदीय कमेटी बनाकर बोफोर्स कांड की जांच कराने की मांग करते हैं, लेकिन राजीव गांधी के स्विस अकाउंट की जानकारी को लेकर एक भी शब्द नहीं बोलते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम था कि वो इस दावे को साबित नहीं कर पाएंगे।’

नेशनल फ्रंट को बहुमत मिला और सरकार बनाने की कवायद शुरू
1989 के लोकसभा चुनावों में 198 सीटें जीत कर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन बहुमत से बहुत पीछे रह गई। बोफोर्स के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक गठबंधन ‘नेशनल फ्रंट’ को बहुमत मिला।

इस तस्वीर में एनटीआर, लालकृष्ण आडवाणी, वीपी सिंह और बीजू पटनायक बैठे हुए हैं। वहीं रामकृष्ण हेगड़े, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, हेमवती नंदन बहुगुणा, देवीलाल खड़े हुए हैं। ये सभी नेशनल फ्रंट का हिस्सा थे।

‘नेशनल फ्रंट’ में शामिल जनता दल को 143, भाजपा को 85 और वाम मोर्चे को 52 सीटें मिलीं। वहीं द्रमुक, असम गण परिषद, तेलुगु देशम जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को 9 सीटें मिलीं। इन सीटों का जोड़ 289 होता है, जो बहुमत के जादुई आंकड़े से 17 ज्यादा था।

वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर अपनी किताब ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में लिखते हैं, ‘वीपी ने बोफोर्स के मुद्दे को देश की जनता के सामने ऐसे पेश किया कि बोफोर्स भ्रष्टाचार का पर्याय बन गया। इसका फायदा वीपी और नेशनल फ्रंट को 1989 लोकसभा चुनाव में हुआ। देश की जनता चाहती थी कि वीपी ही अगले PM बनें।’

देवीलाल के सहारे लिखी गई वीपी को PM बनने की इबारत
बहुमत मिलने के बाद भी 3 दिनों तक संसदीय दल की बैठक टलती रही। 30 नवंबर 1989 को चंद्रशेखर अपने आवास 3 साउथ एवेन्यू लेन पर नंबूदरीपाद, ज्योति बसु और अटल बिहारी वाजपेयी से चर्चा कर रहे थे।

इसी दौरान ओडिशा भवन में भी एक बैठक चल रही थी। इसमें देवीलाल के सहारे वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की योजना बन रही थी। इस बैठक में देवीलाल, अरुण नेहरू, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर और ओडिशा के बीजू पटनायक मौजूद थे।

कुलदीप नैय्यर लिखते हैं, ‘बैठक में देवीलाल ने कहा कि वीपी एक अच्छे प्रधानमंत्री साबित होंगे, लेकिन परेशानी ये है कि मैंने चंद्रशेखर को जुबान दी है और मैं मुकाबले में जरूर उतरूंगा।’

अगर वीपी को PM नहीं बनाया गया तो पार्टी टूट जाएगी। ये बात वहां मौजूद हर नेता को पता थी। इसके बाद देवीलाल ने चंद्रशेखर को ओडिशा भवन बुलाया। चंद्रशेखर ने कहा कि संसदीय बैठक में देवीलाल का नाम प्रस्तावित किया जाएगा, जिसका अनुमोदन मैं खुद करूंगा। चंद्रशेखर के कड़े तेवरों को देख उनके सामने सबने हामी भर दी।

चंद्रशेखर की गैर-मौजूदगी में वीपी को PM बनाने की प्लानिंग की गई। अरुण नेहरू ने यह भी व्यवस्था बनाई कि ताऊ देवीलाल अपने बेटे ओमप्रकाश चौटाला से भी न मिल पाएं, क्योंकि ओमप्रकाश चौटाला जनता दल के उन नेताओं में से थे जो चंद्रशेखर का समर्थन करते थे। ऐसे में चौटाला अगर अपने पिता देवीलाल से कुछ कहते तो वो पुत्रमोह में आकर उसे करने के लिए तैयार हो जाते।

नाटकीय ढंग से वीपी सिंह बने PM, बीमार चंद्रशेखर भड़क गए
1 दिसंबर 1989 का दिन… संसद भवन के सेंट्रल हॉल में जनता दल की संसदीय बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में वीपी सिंह, देवीलाल, मधु दंडवते, अजीत सिंह और जनता दल के सभी सांसद और दिग्गज नेता पहुंचे।

इनके अलावा खुद को प्रधानमंत्री पद का सशक्त उम्मीदवार मानने वाले चंद्रशेखर भी बैठक में पहुंचे। चंद्रशेखर उस वक्त मलेरिया के बुखार में तप रहे थे। इस बैठक को आयोजित करने की जिम्मेदारी अफसर से नेता बने और चंद्रशेखर के करीबी यशवंत सिन्हा को सौंपी गई थी।

उन्होंने अपनी किताब ‘रेलेंटलेस’ में इस वाकये को लिखा है, ‘जैसे ही संसदीय दल की बैठक शुरू हुई, वैसे ही मधु दंडवते ने वीपी सिंह से प्रस्ताव रखने के लिए कहा। इस पर वीपी तेजी से खड़े हुए और हवा की रफ्तार से बोलने लगे। वीपी ने ताऊ देवीलाल को PM बनाने का प्रस्ताव बैठक में रखा। इसके बाद हॉल में दो-चार तालियां ही बजीं।’

ये खबर हॉल के बाहर कान लगाए खड़े पत्रकारों तक पहुंच गई और देश-दुनिया में देवीलाल को भारत का प्रधानमंत्री बताया जाने लगा, लेकिन ये खबर 10 मिनट भी न टिक सकी।

देवीलाल खड़े हुए और बोले, ‘मुझे हरियाणा में ताऊ कहते हैं। यहां भी ताऊ ही बना रहना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। मैं अपना नाम वापस लेता हूं और माननीय वीपी सिंह का नाम तजवीज (सुझाव) करता हूं, क्योंकि देश वीपी को चाहता है।’ इसके बाद हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया।

अजीत सिंह ने इस प्रस्ताव को अनुमोदित किया और दंडवते ने वीपी के निर्वाचन की घोषणा कर दी।

बैठक में वीपी सिंह के PM बनने की घोषणा के बाद तेलुगु देशम पार्टी के मुखिया एनटीआर ने उन्हें माला पहनाकर बधाई दी।

इस पर चंद्रशेखर खड़े हुए और अपना शॉल संभालते हुए बैठक से जाने के लिए चलने लगे। इस दौरान चंद्रशेखर ने कहा, ‘मुझे ये फैसला स्वीकार नहीं है। मुझसे कहा गया था कि देवीलाल को नेता चुना जाएगा। ये धोखा है। मैं बैठक से जा रहा हूं।’

चंद्रशेखर का बुखार और नाराजगी का ताप हॉल में मौजूद नेताओं के साथ पत्रकार तक भांप गए। (स्केचः संदीप पाल)

चंद्रशेखर ने अपनी जीवनी ‘जिंदगी का कारवां’ में इस घटना के बारे में लिखा है, ‘मुझे ये महसूस हुआ कि सरकार की शुरुआत ही बहुत कपट पूर्ण तरीके से हुई। यह बहुत निचले स्तर की राजनीति थी, जिसमें वीपी सिंह एक नैतिक पुरुष के रूप में उभरे। उनका उदय राजनीति में फिसलन की शुरुआत थी। भ्रष्टाचार के मुद्दे को उन्होंने भावुक मसला बना दिया था।’

शपथ ग्रहण के दिन भी उठापटक जारी रही
2 दिसंबर 1989। विश्वनाथ प्रताप सिंह के शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन होता है। तत्कालीन राष्ट्रपति आरके वेंकटरमण ने वीपी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाई, लेकिन कल तक जिन ताऊ देवीलाल ने वीपी के लिए PM पद छोड़ दिया था, वो अब उप-प्रधानमंत्री के लिए अड़ गए थे। उनकी मांग वीपी ने पूरी की।

सीमा मुस्तफा वीपी की जीवनी ‘द लोनली प्रॉफेटः वीपी सिंह ए पॉलिटिकल बॉयोग्राफी’ में लिखती हैं, ‘देवीलाल ने शपथ पत्र में लिखे मंत्री पद को न पढ़कर उप-प्रधानमंत्री पढ़ा। इस पर वेंकटरमण ने उन्हें टोका, लेकिन देवीलाल पर कोई असर नहीं हुआ।’

दरअसल, संविधान में उप-प्रधानमंत्री पद का जिक्र नहीं है। उप-प्रधानमंत्री बनने वाले नेता के शपथ पत्र में मंत्री लिखा होता है।

1 फरवरी 1990 को नई दिल्ली में हुई एक बैठक के दौरान वीपी सिंह, चंद्रशेखर, अरुण नेहरू और देवीलाल।

वीपी सिंह को PM बनाने की व्यूह रचना करने वाले अरुण नेहरू और कुलदीप नैय्यर को बड़े पदों का सुख मिला। अरुण को वीपी ने अपनी सरकार में शामिल किया और वाणिज्य मंत्री का पद दिया। वहीं वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर को वीपी ने लंदन में भारत का हाई कमिश्नर नियुक्त किया।

इनके अलावा वीपी ने मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृह मंत्री बनाया। ऐसा कर वीपी ने मुस्लिमों और जम्मू-कश्मीर को साधने की कोशिश की। वीपी चाहते थे कि इसके जरिए मुस्लिमों में संदेश जाए कि उनकी पहुंच काफी ऊपर तक है।

सईद की बेटी को बचाने के लिए वीपी ने आतंकियों को छोड़ा
जिस दिन मुफ्ती मोहम्मद सईद गृह मंत्रालय में कार्यभार संभालते हैं उसी दिन उनकी 23 साल की बेटी रूबैया सईद का अपहरण हो जाता है। 8 दिसंबर 1989 को रूबैया हॉस्पिटल से घर के लिए निकलती हैं, जिन्हें 5 अलगाववादी मिलकर अगवा कर लेते हैं।

ये अलगाववादी मांग करते हैं कि हमीद शेख, शेर खां, जावेद अहमद जरगर, मोहम्मद कलवल और मोहम्मद अल्ताफ बट्ट को रिहा करें। इन मोस्ट वांटेड आतंकियों को पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों ने बड़ी मेहनत कर गिरफ्तार किया था।

इस पर वीपी ने सईद से कहा, ‘हम सभी इंटेलिजेंस एजेंसियों को इस काम पर लगाएंगे, लेकिन उन्हें कुछ नहीं देंगे।’ पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल अपनी किताब ‘मैटर ऑफ डिस्क्रेशन’ में लिखते हैं, ‘लंबी बातचीत के बाद PM वीपी सिंह ने रूबैया की रिहाई के लिए आतंकियों को छोड़ने का फैसला लिया। जो कि तब और अब भी चौंकाने वाला लगता है।’

विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुफ्ती मोहम्मद सईद।

इसके बाद 10 दिसंबर 1989 को पांचों आतंकियों को रिहा कर दिया जाता है और सईद की बेटी रूबैया वापस आ जाती हैं। इस मसले पर वीपी की छवि को काफी नुकसान हुआ और उनकी निंदा की जाने लगी।

संतोष भारतीय कहते हैं, ‘वीपी सिंह ने यहां शुद्ध मानवीय भावनाएं दिखाईं। इस घटना ने वीपी सिंह के प्रधानमंत्री करियर को लेकर साफ कर दिया कि उन पर दबाव डलवाकर कुछ भी करवाया जा सकता है। अगर वीपी इस समझौते के लिए हामी नहीं भरते, तो उनकी छवि बेहतर होती।’

ज्योतिष को नहीं मानने वाले वीपी के लिए सही साबित हुआ ज्योतिष
राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंह का परिवार ज्योतिष और हस्तरेखा पर काफी विश्वास रखता था। वीपी के पिता और बड़े भाई ज्योतिष पर काफी भरोसा जताते थे। यहां तक कि उनके पिता को ज्योतिष का थोड़ा-बहुत ज्ञान भी था।

‘द डिसरप्टर: हाउ विश्वनाथ प्रताप सिंह शूक इंडिया’ के लेखक देबाशीष लिखते हैं, ‘वीपी का परिवार हर-छोटे-बड़े काम से पहले परिवार के ज्योतिषी से सलाह जरूर लेता था, लेकिन वीपी इससे कतराते थे। वीपी कहते थे कि ये जो भविष्यवाणी करते हैं, अधिकतर गलत निकलती हैं।’

27 जुलाई 1990 को वीपी सिंह पत्नी सीता कुमारी सिंह के साथ बच्चों से बातचीत करते हुए।

वीपी की पत्नी सीता कुमारी सिंह के हवाले से देवाशीष लिखते हैं, ‘हमारे पारिवारिक ज्योतिषी ने कहा था कि मेरे पति कई ऊंचे पदों तक पहुंचेंगे, लेकिन कहीं भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाएंगे… और ऐसा ही हुआ।’

हमेशा विवादों में रही वीपी सिंह की पश्मीना टोपी
प्रधानमंत्री वीपी सिंह एक खास तरह की फर वाली टोपी पहनते थे। इस पर कई बार कॉन्ट्रोवर्सी हुई। वन्यजीव प्रेमियों का कहना था कि ये पश्मीना धागे से बनी है। दरअसल, पश्मीना धागा हिमालय में पाई जाने वाली खास भेड़ों की खाल से बनाया जाता था।

कुछ लोग इसे जिन्ना टोपी के तौर पर देखते थे। पाकिस्तानी अभिजात वर्ग द्वारा पहनी जानी वाली टोपी की पहचान भारत में जिन्ना टोपी के तौर पर बन गई। इसके जरिए वीपी उन भारतीय मुस्लिमों से इमोशनल कनेक्ट करना चाहते थे, जिन्होंने उन्हें और उनकी पार्टी को वोट दिया।

कुछ लोगों का कहना था कि ये टोपी वीपी सिंह का लकी चार्म थी। ऐसा उनके आध्यात्मिक गुरु ने करने को कहा था। हालांकि, वीपी सिंह ने कई मौकों पर इस विवाद को दबाने की कोशिश की। सबसे पहले उन्होंने कहा कि यह फर नहीं, बल्कि सिंथेटिक है। इसे बनाने में किसी जानवर से क्रूरता नहीं की गई है।

फिर वीपी सिंह इसे क्यों पहनते हैं? इस पर वीपी सिंह कहते थे, ‘मेरे सिर पर प्राकृतिक चीजें (बाल) थोड़ी पतली होती जा रही हैं, इसलिए मुझे इसे गर्म रखने के लिए कुछ कृत्रिम चीजों की जरूरत है।’

30-31 मई 1983 को ब्रसेल्स में आयोजित कमीशन ऑफ द यूरोपियन कम्युनिटीज में इंडियन डेलिगेशन का प्रतिनिधित्व करते हुए वीपी सिंह ने पश्मीना टोपी पहनी थी।

मंडल और कमंडल की राजनीति में फंसे वीपी
जनता दल के ज्यादातर नेता मंडल आयोग की सिफारिशों के समर्थन में थे। वीपी ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर देश में तहलका मचा दिया। दरअसल, इसके जरिए शिक्षा और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों यानी OBC को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण मिल गया। इसके खिलाफ सामान्य वर्ग के छात्र कई जगह विरोध प्रदर्शन करने लगे।

देबाशीष मुखर्जी ‘द डिसरप्टर: हाउ वीपी सिंह शूक इंडिया’ में लिखते हैं, ‘मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने में तीन लोगों की अहम भूमिका थी। तत्कालीन कपड़ा मंत्री शरद यादव और समाज कल्याण मंत्री रामविलास पासवान ने सांसदों और मंत्रियों को इस मामले में लामबंद करने का काम किया। जबकि, तब के समाज कल्याण मंत्रालय के सचिव पी.एस. कृष्णन ने इस मसले में किन बातों को शामिल करना है, उसकी तैयारी की।’

1989 की एक रैली के दौरान वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया था।

कुलदीप नैय्यर ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में लिखते हैं, ‘वीपी सिंह सर्वाधिक विवादास्पद राजनीतिज्ञों में शामिल थे। भारतीय राजनीति में उनका प्रभाव भले ही समाज को बांटने वाला रहा हो, लेकिन उनके कार्यकाल में ही मंडल आयोग की वो सिफारिशें लागू हुईं, जिन्हें इंदिरा गांधी ने ताक पर रख दिया था। वीपी ने मुझसे (कुलदीप नैय्यर) से कहा था कि भले ही अपनी एक टांग गंवा दी हो, लेकिन गोल करके ही रहूंगा।’

भाजपा ने हाथ खींचा तो सरकार गिर गई, जनता दल भी टूटा
25 सितंबर 1990 को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से रथयात्रा शुरू की। देश भर में 10 हजार किमी का सफर पूरा कर ये यात्रा अयोध्या पहुंचने वाली थी और राम मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा करने वाली थी, लेकिन मुलायम सिंह, लालू यादव जैसे नेता इस यात्रा के विरोध में थे। वहीं वीपी ने आडवाणी को इसे रोकने के लिए कहा, लेकिन वो नहीं माने।

उस वक्त उत्तर प्रदेश के CM मुलायम ने बयान दिया, ‘अयोध्या में कोई परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा।’ ऐसा कह कर मुलायम ने आडवाणी को अयोध्या आने की चुनौती दी।

कहा जाता है कि वीपी ने बिहार के तत्कालीन CM लालू यादव से कहा, ‘मुलायम तो आडवाणी को गिरफ्तार करेंगे ही, क्यों न तुम ऐसा करो।’

वीपी सिंह ने लालू प्रसाद यादव से कहा कि अगर वो आडवाणी को गिरफ्तार नहीं करेंगे तो मुलायम कर लेंगे। इस तरह उनके हाथ से एक बड़ा वोट बैंक निकल जाएगा। (स्केचः संदीप पाल)

लालू अपनी आत्मकथा ‘गोपालगंज से रायसीना’ में लिखते हैं, ‘मैंने वीपी को दो बार फोन कर आडवाणी को हिरासत में लेने की सहमति ली। 22 अक्टूबर 1990 को वीपी ने लालू से सारी तैयारी सुनिश्चित करने और रात 2 बजे के बाद आडवाणी को हिरासत में लेने को कहा, क्योंकि तब तक अखबार छप चुके होते हैं। अगले दिन ज्यादा हंगामा नहीं होगा।’

23 अक्टूबर 1990 को रात 2 बजे बिहार के समस्तीपुर जिले में जिला मजिस्ट्रेट आरके सिंह और IPS अफसर रामेश्वर ओरेन पुलिस फोर्स के साथ आडवाणी को हिरासत में ले लेते हैं। इससे नाराज होकर केंद्र की सरकार से भाजपा ने हाथ खींच लिया।

देबाशीष मुखर्जी लिखते हैं, ‘भाजपा के इस फैसले के बाद वीपी इस्तीफा देना चाहते थे, लेकिन अन्य पार्टी के नेताओं ने उन्हें सलाह दी कि वो अविश्वास प्रस्ताव तक पद पर बने रहे।’

7 नवंबर 1990 को लोकसभा में वीपी सिंह के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। 11 घंटे बहस होने के बाद रात सवा दस बजे अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई। इसमें वीपी सिंह सरकार के पक्ष में 142 और विपक्ष में 346 वोट पड़े। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। वीपी सिर्फ 11 महीने ही PM की कुर्सी पर रहे।

सरकार गिरने के साथ ही जनता दल में टूट पड़ गई। कुछ नेता चंद्रशेखर के साथ तो कुछ नेता वीपी के बगलगीर बन गए। उस वक्त के गुजरात के CM चिमनभाई पटेल, उत्तर प्रदेश के CM मुलायम सिंह यादव और हरियाणा के CM ओमप्रकाश चौटाला चंद्रशेखर के साथ खड़े थे, जबकि बिहार के CM लालू यादव ने वीपी का कुनबा चुना।

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मैं भारत का पीएम सीरीज के आठवें एपिसोड में कल यानी 23 मार्च को जानिए, चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने की कहानी। कैसे उन्होंने और राजीव गांधी ने वीपी सिंह से अपने धोखे का बदला लिया…

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‘मैं भारत का पीएम’ सीरीज के अन्य एपिसोड यहां पढ़िए…

एपिसोड-1: एक कागज की पर्ची से PM बने नेहरू:पटेल को चुनना चाहती थीं 80% कांग्रेस कमेटियां, लेकिन गांधीजी अड़ गए

एपिसोड-2: रुआंसी इंदिरा बोलीं- अब आप मुल्क संभालिए:शास्त्री के पीएम बनने की कहानी, जो टहलते हुए लाहौर चले गए थे

एपिसोड-3: फिरोज गांधी ने पत्नी इंदिरा से कहा- आप फासीवादी हो:’गूंगी गुड़िया’ से आयरन लेडी बनीं पीएम इंदिरा के किस्से

एपिसोड-4: लंबी उम्र के लिए खुद का मूत्र पीते थेः मोरारजी देसाई ने पीएम बनते ही इंदिरा का टाइम कैप्सूल क्यों खुदवा दिया

एपिसोड-5: जब थानेदार ने PM से ली 35 रुपए रिश्वत:चौधरी चरण सिंह कैसे बने 5 महीने के PM; इंदिरा को गिरफ्तार करवाया

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